सुप्रीम कोर्ट ने पत्रकारों की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को दी मजबूती यूपी सरकार की आलोचना पर दर्ज एफआईआर में अभिषेक उपाध्याय को अंतरिम संरक्षण, राज्य को नोटिस
मध्य प्रदेश समाचार न्यूज़,नई दिल्ली, 7 अक्टूबर 2025: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पत्रकारिता को कुचलने की किसी भी कोशिश को सुप्रीम कोर्ट ने सख्त लहजे में खारिज करते हुए चेतावनी दी है कि केवल सरकारी आलोचना को बहाना बनाकर पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे नहीं चलाए जा सकते। संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पत्रकारों का अटल अधिकार है और इसका दुरुपयोग लोकतंत्र के लिए खतरा है। यह महत्वपूर्ण फैसला उत्तर प्रदेश के पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की याचिका पर आया है, जिसमें उन्होंने राज्य प्रशासन में कथित जातिगत पूर्वाग्रह पर लिखे लेख के आधार पर दर्ज एफआईआर को चुनौती दी थी।सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने जस्टिस हृषिकेश रॉय और जस्टिस एसवीएन भट्टी की अगुवाई में 4 अक्टूबर 2024 को इस मामले की सुनवाई की। याचिकाकर्ता के वकील अनूप प्रकाश अवस्थी को सुनने के बाद कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी कर चार सप्ताह में हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया। अंतरिम राहत देते हुए कोर्ट ने साफ निर्देश जारी किए कि उपाध्याय के खिलाफ लेख से जुड़े किसी भी मामले में गिरफ्तारी या कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं होगी। याचिका संख्या डब्ल्यूपी(सीआरएल) 402/2024 में कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पक्षकार बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है, जिसके बाद उनका नाम याचिका से हटा लिया गया।
मामले की पृष्ठभूमि: जातिगत पूर्वाग्रह पर सवाल उठाने वाला लेख
लखनऊ के फ्रीलांस पत्रकार अभिषेक उपाध्याय ने सितंबर 2024 में एक विवादास्पद लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था 'यादव राज वर्सेज ठाकुर राज (या सिंह राज)'। इस लेख में उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के प्रमुख पदों पर एक विशेष जाति के अधिकारियों की नियुक्तियों को लेकर जातिगत गतिशीलता पर सवाल खड़े किए। लेख को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स (पूर्व ट्विटर) पर साझा करने के बाद फ्रीलांस पत्रकार पंकज कुमार की शिकायत पर लखनऊ के हजरतगंज थाने में एफआईआर नंबर 265/2024 दर्ज कराई गई। इसमें भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 353(2) (सार्वजनिक शांति भंग करने वाले बयान), 197(1)(सी) (राष्ट्रीय एकता को खतरा), 302 (धार्मिक भावनाओं को ठेस), 356(2) (मानहानि) और आईटी एक्ट की धारा 66 के तहत आरोप लगाए गए।उपाध्याय ने अपनी याचिका में दावा किया कि यह एफआईआर बदले की भावना से प्रेरित है और लेख में कोई अपराधी तत्व नहीं है। उन्होंने बताया कि यह शुद्ध पत्रकारिता का हिस्सा है, जो सत्ता की जवाबदेही सुनिश्चित करती है। पोस्ट के बाद उन्हें धमकियां मिलीं, यहां तक कि उत्तर प्रदेश पुलिस के आधिकारिक एक्स हैंडल से भी कानूनी कार्रवाई की धमकी दी गई। याचिकाकर्ता ने अन्य स्थानों पर इसी लेख से जुड़ी संभावित एफआईआर को भी रद्द करने की मांग की। कोर्ट ने माना कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला है और सरकारी आलोचना को अपराध बनाने की प्रवृत्ति असहनीय है।
पत्रकारिता के लिए मील का पत्थर, अन्य मामलों से जुड़ाव
यह फैसला पत्रकार समुदाय के लिए बड़ी राहत है। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे सरकारी आलोचना को दबाने की कोशिशों पर लगाम लगेगी। इसी तरह का एक अन्य केस पत्रकार ममता त्रिपाठी का है, जिनके खिलाफ जातिगत भेदभाव पर लेखों के लिए चार एफआईआर दर्ज हुईं। सुप्रीम कोर्ट ने 24 अक्टूबर 2024 को उन्हें भी अंतरिम संरक्षण प्रदान किया और इस मामले को उपाध्याय याचिका के साथ जोड़ दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में वैकल्पिक उपाय अपनाए जा सकते हैं, लेकिन मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर तत्काल हस्तक्षेप जरूरी है।सोशल मीडिया पर इस फैसले का जोरदार स्वागत हो रहा है। पत्रकार संगठनों, विपक्षी नेताओं और नागरिक समाज ने इसे 'प्रेस फ्रीडम की ऐतिहासिक जीत' करार दिया। हालांकि, कुछ आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि क्या राज्य सरकारें अब पत्रकारों को फंसाने के लिए अन्य गंभीर धाराओं का सहारा लेंगी। कोर्ट ने मामले को 5 नवंबर 2024 के लिए स्थगित कर दिया है, जहां उत्तर प्रदेश सरकार का पक्ष सुना जाएगा।यह फैसला न केवल अभिषेक उपाध्याय के लिए न्याय की जीत है, बल्कि पूरे मीडिया जगत के लिए एक मजबूत संदेश भी। सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि सच्चाई की कलम कभी नहीं झुकेगी और लोकतंत्र में आलोचना का अधिकार सर्वोपरि है।
(स्रोत: सुप्रीम कोर्ट रिकॉर्ड, एक्स पोस्ट्स एवं संबंधित रिपोर्ट्स)

