मीडिया का चौथा स्तंभ: सरकारी विज्ञापनों की दोहरी नीति और पत्रकारों की अधिमान्यता पर सवाल
(लेखक: हरिशंकर पाराशर)
मध्य प्रदेश समाचार न्यूज़ कटनी।लोकतंत्र के चार स्तंभों में प्रेस को चौथा स्तंभ कहा जाता है, जो निर्भीक होकर सत्ता की जवाबदेही सुनिश्चित करता है। लेकिन जब सत्ता खुद इस स्तंभ को कमजोर करने लगे, तो लोकतंत्र की नींव हिलने लगती है। हाल के वर्षों में भारत में सरकारी विज्ञापनों की नीति ने छोटे-क्षेत्रीय अखबारों को बुरी तरह प्रभावित किया है। विशेष रूप से असम के माजुली जैसे क्षेत्रों में छोटे अखबारों को सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए हैं, जबकि बड़े मीडिया ग्रुपों को 14-15 पेज के पूर्ण विज्ञापन मुफ्त में मिल रहे हैं। यह दोहरी नीति न केवल मीडिया की आर्थिक स्वतंत्रता को खतरे में डाल रही है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर भी प्रहार कर रही है।
छोटे अखबारों पर सरकारी विज्ञापन बंद: क्या है मंशा?
भारत में प्रिंट मीडिया का बड़ा हिस्सा छोटे-क्षेत्रीय अखबारों पर निर्भर है। ये अखबार स्थानीय समस्याओं, ग्रामीण मुद्दों और क्षेत्रीय संस्कृति को आवाज देते हैं। असम के माजुली जिले जैसे दूरदराज इलाकों में ये अखबार स्थानीय लोगों की प्राथमिक खबर स्रोत हैं। लेकिन हाल ही में इन छोटे अखबारों को सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए हैं। 2019 में असम के प्रमुख अखबारों ने सरकार के प्रति विरोध में तीन दिनों तक सरकारी विज्ञापन, खबरें और फोटो प्रकाशित न करने का फैसला लिया था, जो वित्तीय संकट का प्रतीक था। केंद्रीय स्तर पर भी, मोदी सरकार ने 2019 में टाइम्स ग्रुप, द हिंदू और द टेलीग्राफ जैसे बड़े ग्रुपों के विज्ञापन फ्रीज कर दिए, जो आलोचनात्मक कवरेज का बदला माना गया।सरकार की यह नीति स्पष्ट रूप से दोहरी है। जहां छोटे अखबारों को विज्ञापन से वंचित रखा जा रहा है, वहीं बड़े मीडिया हाउस को बड़े पैमाने पर सरकारी प्रचार का लाभ मिल रहा है। रिपोर्ट्स के अनुसार, सरकार का विज्ञापन खर्च मीडिया को 'पुरस्कृत' या 'सजा' देने का हथियार बन गया है।माजुली जैसे क्षेत्रों में, जहां साक्षरता दर कम है और स्थानीय अखबारों की पहुंच ज्यादा, यह कदम ग्रामीण पाठकों को मुख्यधारा की खबरों से दूर कर सकता है। सरकार का संदेश साफ है: आलोचना करने वालों को दंडित करो, वफादारों को पुरस्कृत करो। लेकिन सवाल यह है—क्या8 यह लोकतंत्र की बजाय तानाशाही की ओर इशारा करता है?
क्षेत्रीय मीडिया की विश्वसनीयता: पाठक संख्या में बड़े, समर्थन में छोटे
क्षेत्रीय और छोटे अखबार भारत की मीडिया विविधता का आधार हैं। ये अखबार स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित होते हैं और ग्रामीण-शहरी दोनों क्षेत्रों में पाठक संख्या के मामले में बड़े अखबारों से आगे हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत के 1 लाख से अधिक पंजीकृत समाचार पत्रों में से अधिकांश छोटे-मध्यम आकार के हैं, जो कुल पाठक वर्ग का 60-70% कवर करते हैं। माजुली जैसे असम के द्वीप जिले में, जहां बाढ़, पर्यावरण और आदिवासी मुद्दे प्रमुख हैं, स्थानीय अखबार ही इनकी सच्ची आवाज हैं। लोग इनकी खबरों को अधिक विश्वसनीय मानते हैं क्योंकि ये कॉर्पोरेट प्रभाव से मुक्त होते हैं।फिर भी, सरकारी नीति इनकी उपेक्षा करती है। केंद्रीय विज्ञापन नीति 2020 में प्रिंट मीडिया के लिए दरें निर्धारित हैं, लेकिन छोटे अखबारों को सर्कुलेशन प्रमाण-पत्र (RNI) और न्यूनतम प्रसार संख्या के कठोर मानदंडों के कारण बाहर रखा जाता है।ea246d बड़े ग्रुपों को चेन डिस्काउंट मिलता है, जबकि छोटे अखबारों का राजस्व 30-40% विज्ञापनों पर निर्भर होता है। यह असंतुलन मीडिया की स्वतंत्रता को कुचल रहा है और क्षेत्रीय आवाजों को दबा रहा है।
पत्रकारों की अधिमान्यता: नियमों का जाल और सुधार की मांग
मीडिया की एक और बड़ी समस्या है पत्रकारों को अधिमान्यता (एक्रेडिटेशन) प्रदान करने की प्रक्रिया। वर्तमान केंद्रीय मीडिया एक्रेडिटेशन गाइडलाइंस 2022 के अनुसार, पूर्णकालिक पत्रकार को न्यूनतम 5 वर्ष का अनुभव चाहिए, जबकि फ्रीलांसर को 15 वर्ष। दिल्ली-एनसीआर में रहने वाले पत्रकारों को ही प्राथमिकता मिलती है, और मीडिया संगठन को 10,000 न्यूनतम दैनिक प्रसार या 10 लाख मासिक यूनिक विजिटर्स की शर्तें पूरी करनी पड़ती हैं।लेकिन क्षेत्रीय पत्रकारों के लिए यह नियम असंभव हैं। कई पत्रकार जीवन भर मेहनत करते हैं, लेकिन प्रेस कार्ड न होने से सरकारी कार्यक्रमों, प्रेस कॉन्फ्रेंस या सूचना स्रोतों तक पहुंच नहीं पाते। गोवा जैसे राज्यों में 3 वर्ष का न्यूनतम अनुभव मांगा जाता है, लेकिन केंद्रीय स्तर पर यह 5 वर्ष है। हमारी मांग है: नियमों में सुधार हो। 3 वर्ष की पत्रकारिता अनुभव वाले किसी भी पत्रकार को—चाहे वह प्रेस रिलीज, जनसंपर्क विभाग या एक्रेडिटेशन कमेटी से सत्यापित हो—अधिमान्यता मिलनी चाहिए। यदि उसके 3-4 लेख या समाचार किसी मान्य अखबार में प्रकाशित हुए हैं, तो यही पर्याप्त प्रमाण हो। उम्र या क्षेत्र की सीमा न हो; सभी को समान अवसर मिले।यह सुधार न केवल पत्रकारों के हित में होगा, बल्कि लोकतंत्र को मजबूत करेगा। वर्तमान नियम पत्रकारों को हतोत्साहित करते हैं, जबकि अधिमान्यता स्वास्थ्य बीमा, रेलवे छूट और सरकारी पहुंच जैसे लाभ प्रदान करती है।
निष्कर्ष
मीडिया स्वतंत्रता के लिए एकजुटता की जरूरत
सरकारी विज्ञापनों की दोहरी नीति और कठोर अधिमान्यता नियम मीडिया को सत्ता के अधीन बनाने की कोशिश हैं। छोटे अखबारों और क्षेत्रीय पत्रकारों की उपेक्षा से लोकतंत्र की विविधता खतरे में है। समय आ गया है कि सरकार नीतियों का पुनर्मूल्यांकन करे—विज्ञापन वितरण को निष्पक्ष बनाए और अधिमान्यता को सरल। पत्रकार संगठन, छोटे मीडिया हाउस और नागरिक समाज को एकजुट होकर इस लड़ाई को लड़ना होगा। क्योंकि चौथा स्तंभ मजबूत रहेगा, तभी लोकतंत्र सांस ले सकेगा। निर्भीक पत्रकारों को हमारा सलाम! जय हिंद!

